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Friday 24 June 2022

कबीर दास || जीवन परिचय : Kabir Das Jeevan Parichay | Kabir Das Ka Jivan Parichay

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कबीर दास || जीवन परिचय : Kabir Das Jeevan Parichay | Kabir Das Ka Jivan Parichay


कबीरदास
[सन् 1398 ई ० (संवत 1455)-1518ई ० (संवत १५५१)]

Kabir Das Jeevan Parichay in Hindi

कबीर दास || जीवन परिचय : Kabir Das Jeevan Parichay | Kabir Das Ka Jivan Parichay
कबीर दास || जीवन परिचय : Kabir Das Jeevan Parichay | Kabir Das Ka Jivan Parichay

कबीर साहब का (लगभग 14वीं-15वीं शताब्दी) जन्म स्थान काशी, उत्तर है। कबीर साहब का जन्म सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय हुआ था. उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। महात्मा कबीर सामान्यतः "कबीरदास" नाम से प्रसिद्ध हुये तथा उन्होंने बनारस (काशी, उत्तर प्रदेश) में जुलाहे की भूमिका की। कबीर साहब के वास्तविक रूप से सभी अनजान थे सिवाय उनके जिन्हें कबीर साहब ने स्वयं दिए और अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया जिनमें सिख धर्म के परवर्तक नानक देव जी (तलवंडी, पंजाब), आदरणीय धर्मदास जी ( बांधवगढ़, मध्यप्रदेश), दादू साहेब जी (गुजरात) ये सभी संत उनके समान आदि शामिल हैं। इस तरह वह "तस्कर" अर्थात छिप कर कार्य करने वाला कहा है।

कबीर दास के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य 
Some important facts about Kabir Das in Hindi

पूरा नाम - संत कबीरदास

अन्य नाम - कबीरदास, कबीर परमेश्वर, कबीर साहेब

जन्म - विक्रमी संवत १४५५ (सन १३९८ ई ० )

जन्म भुमि - लहरताला ताल, काशी 

मृत्यु - विक्रमी संवत १५५१ (सन १४९४ ई ० )

मृत्यु का स्थान - मगहर, उत्तर प्रदेश,

माता पिता का नाम - निरु और नीमा 

पत्नी - लोई 

संतान - पुत्र - कमाल, पुत्री -  कमाली 

मुख्य रचनाएँ - साखी , सबद , और रमैनी 

भाषा - अवधी , पंचमेल खिचड़ी , सधुककडी 

कबीर दास... संवत 1455 ज्येष्ठ मास पूर्णिमा को जन्म हुआ..
इन्होंने अपने जीवन में अनेक प्रकार की कृतियां लिखी। इसके साथ ही उनके दोहे (kabir das ke dohe) भी काफी प्रसिद्ध रहे जो हम आज भी पढ़ते और सुनते हैं।

काल करेसो आज कर, आज करेसो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुिर करेगा कब || 

कबीर दास और उनकी जीवनी (Kabir Das Biography in Hindi) के बारे में अनेक प्रकार की बाते कही गयी हैं। जिसके बारे में हमने अपने "कबीर दास || जीवन परिचय : Kabir Das Jeevan Parichay | Kabir Das Ka Jivan Parichay" में बताया है तो चलिए Kabir Das ki Jivani के बारे में विस्तार से जानते हैं। कबीर दास का जीवन में ज्यादा सत्य प्रमाण नहीं है। 

कबीर दास की जीवनी | Kabir Das biography in Hindi

कबीर दास  का जन्म 1398 ई० में हुआ था। कबीर दास के जन्म के संबंध में लोगों द्वारा अनेक प्रकार की बातें कही जाती हैं कुछ लोगों का कहना है कि वह जगत गुरु रामानंद स्वामी Ramanand Swami जी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आई। उसे वहां से एक नीरू नाम का जुलाहा अपने घर लेकर आया और उसी ने उनका पालन पोषण किया।
बाद में इस बालक को कबीर कहा जाने लगा। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद (Swami Ramanand) के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुई एक दिन, रात के समय Kabir Das पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े।
रामानंद जी, गंगा स्नान करने के लिए सीढ़ियों से उतर रहे थे कि तभी अचानक उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया उनके मुख से तत्काल राम-राम शब्द निकल पड़ा उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया
कुुछ कबीरपंथीयों का यह मानना है कि कबीर दास का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ था।

कबीर के शब्दों में—
  “काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये “

कबीर दास का जन्म स्थान | Birthplace of Kabir Das

Birthplace of Kabir Das : Kabir Das का जन्म मगहर, काशी में हुआ था। कबीर दास  ने अपनी रचना में भी वहां का उल्लेख किया है: “पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई” अर्थात काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा था और मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वहां कबीर का मकबरा भी है।

कबीर दास की शिक्षा | Education of Kabir Das in Hindi

Education of Kabir Das in Hindi : Kabir Das जब धीरे-धीरे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात का आभास हुआ कि वह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं वह अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न थे। 
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
 ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।"
मदरसे भेजने लायक साधन उनके माता—पिता के पास नहीं थे। जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी कहा से आए। यही कारण है कि वह किताबी विद्या प्राप्त ना कर सके।

"मसि कागद छुवो नहीं, कमल गही नहिं हाथ | 
 पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
 ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।"


कबीर दास का वैवाहिक जीवन | Marital life of Kabir Das in Hindi

Marital life of Kabir Das in Hindi : Kabir Das का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या ‘लोई’ के साथ हुआ। कबीर दास की कमाल और कमाली नामक दो संतानें भी थी जबकि कबीर को कबीर पंथ में बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इस पंथ के अनुसार कमाल उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या थी।
लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रूप में भी किया है कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे।
एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं:-
"कहत कबीर सुनो रे भाई
हरि बिन राखल हार न कोई।"
यह हो सकता है कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इन्हें शिष्या बना लिया हो। कबीर के बारे में लोगो का अलग अलग मत है। जिसको भी उनके बारे में जो पता चला वह समझा और अपने व्याख्यान में उसे पिरोया। 
आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे अतः उन दिनों जब रामानंद जी की बड़ी धूम थी। रामानंद के साथ अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे है।
रामानुज जी के शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति-पाति का भेद और खानपान का अचार दूर कर दिया गया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ‘राम नाम’ रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ।
लेकिन आगे चलकर कबीर के राम, रामानंद के राम से भिन्न हो गए और उनके प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की और दृढ़ हुई।

संत शब्द का अर्थ : -
संत शब्द संस्कृत सत् प्रथमा का बहुवचन रूप है जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति।
हिंदी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, आदि पुराने कवियों ने इन शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी पुरुष के अर्थ में किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि संत उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो। इसके अंतर्गत लोगमंगलविधायी में सभी सत्पुरुष आ जाते हैं, किंतु कुछ साहित्यकारों ने निर्गुणी भक्तों को ही संत की उपाधि दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है।
मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी—
  "पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पुजौपहार
   था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।"

कबीरदास के विचार | Thoughts of Kabir Das

Thoughts of Kabir Das : संत परंपरा में हिंदी के पहले संत साहित्य भाष्टा जयदेव हैं। ये गीत गोविंदकार जयदेव से भिन्न है।  Kabir Das ने जो व्यंग्यात्मक प्रहार किए और अपने को सभी ऋषि-मुनियों से आचारवान एवं सच्चरित्र घोषित किया, उसके प्रभाव से समाज का निम्न वर्ग प्रभावित न हो सका एवं आधुनिक विदेशी सभ्यता में दीक्षित एवं भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में कुछ लोगों को सच्ची मानवता का संदेश सुनने को मिला। कबीर दास की विचार धारा उनके दोहो में साफ दिखती है। शेनभाई, रैदास, पीपा, नानकदेव, अमरदास, धर्मदास, दादूदयाल, गरीबदास, सुंदरदास, दरियादास, कबीर की साधना हैं।
रविंद्र नाथ ठाकुर ने ब्रह्म समाज विचारों से मेल खाने के कारण कबीर की वाणी का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया और उससे आजीवन प्रभावित भी रहे। कबीर दास की रचना मुख्यतः साखियों एवं पदों में हुई है।
इसमें उनकी सहानुभूति तीव्र रूप से सामने आई है।


कबीर दास का व्यक्तित्व | Personality of Kabir Das

हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास की बात करें तो कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक, गायक नहीं हुआ।
कबीर का व्यक्तित्व तुलसीदास के सामान भी था। परंतु तुलसीदास और कबीर में बड़ा अंतर था।उसी ने कबीर की वाणी में अनन्य असाधारण जीवन रस भर दिया क्युकि उनका जीवन संत के रूप में भी जाना जाता है।  इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियां श्रोता को बलपूर्वक आकर्षित करती हैं
दोनों ही भक्त थे, परंतु दोनों स्वभाव, संस्कार दृष्टिकोण में बिल्कुल अलग-अलग थे मस्ती स्वभाव को झाड़-फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्भुत व्यक्ति बना दिया। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक संभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि ना कहा जाए तो और क्या कहा जाए?

कबीर दास की कृतियों के बारे में जानते हैं— कबीर की वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है। कबीर के 74 ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने हिंदुत्व में 71 पुस्तकें गिनाई हैं।  संत कबीर दास ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, कबीर दास ने इन्हें अपने मुंह से बोला और उनके शिष्यों ने इन ग्रंथों को लिखा। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। वे अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न भिन्न है। एच. एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ मौजूद हैं। 

इसके तीन भाग हैं

  1. रमैनी
  2. सबद
  3. साखी

कबीर दास जी की मुख्य रचनाएं 
साखी– इसमें ज्यादातर कबीर दास जी की शिक्षाओं और सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है।
सबद -कबीर दास जी की यह सर्वोत्तम रचनाओं में से एक है, इसमें उन्होंने अपने प्रेम और अंतरंग साधाना का वर्णन खूबसूरती से किया है।
रमैनी- इसमें कबीरदास जी ने अपने कुछ दार्शनिक एवं रहस्यवादी विचारों की व्याख्या की है। वहीं उन्होंने अपनी इस रचना को चौपाई छंद में लिखा है।



  1. कथनी-करणी का अंग :-  कबीर दास
  2. मोको कहां :-  कबीर दास
  3. साधो, देखो जग बौराना :-  कबीर दास
  4. करम गति टारै नाहिं टरी :-  कबीर दास
  5. रहना नहिं देस बिराना है :-  कबीर दास
  6. चांणक का अंग :-  कबीर दास
  7. नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार :-  कबीर दास
  8. राम बिनु तन को ताप न जाई :-  कबीर दास
  9. दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ :-  कबीर दास
  10. हंसा चलल ससुररिया रे, नैहरवा डोलम डोल :-  कबीर दास
  11. हाँ रे! नसरल हटिया उसरी गेलै रे दइवा :-  कबीर दास
  12. सोना ऐसन देहिया हो संतो भइया :-  कबीर दास
  13. अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल :-  कबीर दास
  14. सहज मिले अविनासी :-  कबीर दास
  15. चेत करु जोगी, बिलैया मारै मटकी :-  कबीर दास
  16. बीत गये दिन भजन बिना रे :-  कबीर दास
  17. कबीर की साखियाँ :-  कबीर दास
  18. अवधूता युगन युगन हम योगी :-  कबीर दास
  19. रहली मैं कुबुद्ध संग रहली :-  कबीर दास
  20. कबीर के पद :-  कबीर दास
  21. बहुरि नहिं आवना या देस :-  कबीर दास
  22. धोबिया हो बैराग :-  कबीर दास
  23. पाँच ही तत्त के लागल हटिया :-  कबीर दास
  24. बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे :-  कबीर दास
  25. अंखियां तो झाईं परी :-  कबीर दास
  26. समरथाई का अंग :-  कबीर दास
  27. जीवन-मृतक का अंग :-  कबीर दास
  28. नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार :-  कबीर दास
  29. सुगवा पिंजरवा छोरि भागा :-  कबीर दास
  30. तोर हीरा हिराइल बा किचड़े में :-  कबीर दास
  31. घर पिछुआरी लोहरवा भैया हो मितवा :-  कबीर दास
  32. भेष का अंग :-  कबीर दास
  33. ननदी गे तैं विषम सोहागिनि :-  कबीर दास
  34. मधि का अंग :-  कबीर दास
  35. सम्रथाई का अंग :-  कबीर दास
  36. करम गति टारै नाहिं टरी :-  कबीर दास
  37. सतगुर के सँग क्यों न गई री :-  कबीर दास
  38. उपदेश का अंग :-  कबीर दास
  39. पतिव्रता का अंग :-  कबीर दास
  40. भ्रम-बिधोंसवा का अंग :-  कबीर दास
  41. कामी का अंग :-  कबीर दास
  42. मोको कहां ढूँढे रे बन्दे :-  कबीर दास
  43. चितावणी का अंग :-  कबीर दास
  44. निरंजन धन तुम्हरो दरबार :-  कबीर दास
  45. मन का अंग :-  कबीर दास
  46. जर्णा का अंग :-  कबीर दास
  47. काहे री नलिनी तू कुमिलानी :-  कबीर दास
  48. माया का अंग :-  कबीर दास
  49. नीति के दोहे :-  कबीर दास
  50. गुरुदेव का अंग :-  कबीर दास
  51. सुमिरण का अंग :-  कबीर दास
  52. बेसास का अंग :-  कबीर दास
  53. भजो रे भैया राम गोविंद हरी :-  कबीर दास
  54. केहि समुझावौ सब जग अन्धा :-  कबीर दास
  55. मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा :-  कबीर दास
  56. मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै :-  कबीर दास
  57. का लै जैबौ, ससुर घर ऐबौ :-  कबीर दास
  58. सुपने में सांइ मिले :-  कबीर दास
  59. मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै :-  कबीर दास
  60. तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के :-  कबीर दास
  61. माया महा ठगनी हम जानी :-  कबीर दास
  62. साध-असाध का अंग :-  कबीर दास
  63. दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ :-  कबीर दास
  64. रस का अंग :-  कबीर दास
  65. कौन ठगवा नगरिया लूटल हो :-  कबीर दास
  66. झीनी झीनी बीनी चदरिया :-  कबीर दास
  67. संगति का अंग :-  कबीर दास
  68. विरह का अंग :-  कबीर दास
  69. रहना नहिं देस बिराना है :-  कबीर दास
  70. साधो ये मुरदों का गांव :-  कबीर दास
  71. सुमिरण का अंग :-  कबीर दास
  72. रे दिल गाफिल गफलत मत कर :-  कबीर दास
  73. राम बिनु तन को ताप न जाई :-  कबीर दास
  74. मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में :-  कबीर दास
  75. साध का अंग :-  कबीर दास
  76. तेरा मेरा मनुवां :-  कबीर दास
  77. भ्रम-बिधोंसवा का अंग :-  कबीर दास
  78. सांच का अंग :-  कबीर दास
  79. घूँघट के पट :-  कबीर दास
  80. हमन है इश्क मस्ताना :-  कबीर दास
  81. हमन है इश्क मस्ताना :-  कबीर दास
  82. सूरातन का अंग :-  कबीर दास
  83. कबीर की साखियाँ :-  कबीर दास
  84. रहना नहिं देस बिराना है :-  कबीर दास
  85. मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया :-  कबीर दास
  86. अंखियां तो छाई परी :-  कबीर दास
  87. मुनियाँ पिंजड़ेवाली ना, तेरो सतगुरु है बेपारी :-  कबीर दास
  88. अँधियरवा में ठाढ़ गोरी का करलू :-  कबीर दास
  89. घूँघट के पट :-  कबीर दास
  90. ऋतु फागुन नियरानी हो :-  कबीर दास
  91. करम गति टारै नाहिं टरी :-  कबीर दास
  92. साधु बाबा हो बिषय बिलरवा :-  कबीर दास
  93. दहिया खैलकै मोर :-  कबीर दास


कबीर दास का साहित्यिक परिचय | Literary introduction of Kabir Das
Kabir Das कवि, संत और समाज सुधारक थे। इसलिए उन्हें संत कबीरदास (Sant Kabir Das) भी कहा जाता है। उनकी कविता का प्रत्येक शब्द पाखंडीयों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग और स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारों को ललकारता हुआ आया और असत्य अन्याय की पोल खोलकर रखने वाले संत कबीर ने अपनी दोहो में अपने ही भाव को वक्त किया है। 
कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी मुकाबला था। उनके द्वारा बोला गया था कभी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशाना बनकर चोट भी करता था और खोट भी निकालता था।

कबीरदास की भाषा और शैली | Language style of Kabir Das

Kabir Das जैसा कि हमें पता है कबीर दास जी स्कूल भी नहीं गए तो उनकी भाषा रोजमर्रा की भाषा है और इसी भाषा शैली को उन्होंने अपनी वाणी की भाषा का ही प्रयोग किया है भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वो अपनी जिस बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहते थे उसे उसी रूप में प्रकट करने की क्षमता उनके पास थी।
उसके लिए कबीर की भाषा से ज्यादा साफ और जोरदार भाषा की संभावना भी नहीं है और इससे ज्यादा जरूरत भी नहीं है।

Some important facts about Kabir Das

Full Name - Sant Kabirdas

Birth - 1398

Birth place - Lahartala Tal, Kashi

Death - 1518

Place of Death - Magahar, Uttar Pradesh,

Parents Name - Niru and Neema

wife - loi

Children - Son - Kamal, Daughter - Kamali

Main compositions - Sakhi, Sabad, and Ramani

Language - Awadhi, Panchmel Khichdi, Sadhukkadi

कबीर दर्शन | Kabir Darshan

यह उनके जीवन के बारे में अपने दर्शन का एक प्रतिबिंब हैं। उनके लेखन मुख्य रूप से पुनर्जन्म और कर्म की अवधारणा पर आधारित थे। कबीर के जीवन के बारे में यह स्पष्ट था कि वह एक बहुत ही साधारण तरीके से जीवन जीने में विश्वास करते थे।
उनका परमेश्वर की एकता की अवधारणा में एक मजबूत विश्वास था उनका एक विशेष संदेश था कि चाहे आप हिंदू भगवान या मुसलमान भगवान के नाम का जाप करें, किंतु सत्य यह है कि ऊपर केवल एक ही परमेश्वर है जो इस खूबसूरत दुनिया के निर्माता है।
जो लोग इन बातों से ही कबीर दास की महिमा पर विचार करते हैं वे केवल सतह पर ही चक्कर काटते हैं कबीर दास एक बहुत ही महान और जबरदस्त क्रांतिकारी पुरुष थे।

कबीर दास की मृत्यु | Kabir Das Death
Kabir Das ने काशी के निकट मगहर में अपने प्राण त्याग दिए। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर भी विवाद उत्पन्न हो गया था हिंदू कहते हैं कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।
इसी विवाद के चलते जब उनके शव से चादर हट गई तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा और बाद में वहां से आधे फुल हिंदुओं ने उठाया और आधे फूल मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीती से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है उनके जन्म की तरह ही उनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को भी लेकर मतभेद है।
किंतु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन 1518 ई०) को मानते हैं, लेकिन बाद में कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु को 1448 को मानते हैं।
कबीर दास के दोहे | Kabir Das ke Dohe

Kabir Das एक महान व्यक्ति थे उनकी महानता ने ही उन्हें इतना महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध इंसान बनाया।
Kabir Das ke Dohe भी उनकी तरह ही महान और मीठे हैं।
कबीर दास के प्रत्येक दोहे (Kabir Das ke Dohe) का अपने आप में एक महत्वपूर्ण अर्थ है यदि आप उनके दोहे को सुनकर उसे आप अपने जीवन में लागू करते हैं तो आपको अवश्य ही मन की शांति के साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।
मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥
जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥

कबीर दास का जीवन परिचय - भारत के महान संत और आध्यात्मिक कवि कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में हुआ था। इस्लाम के अनुसार ‘कबीर’ का अर्थ महान होता है। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि उनके असली माता-पिता कौन थे लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका लालन-पालन एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनको नीरु और नीमा (रखवाला) के द्वारा वाराणसी के एक छोटे नगर से पाया गया था। वाराणसी के लहरतारा में संत कबीर मठ में एक तालाब है जहाँ नीरु और नीमा नामक एक जोड़े ने कबीर को पाया था।
ये शांति और सच्ची शिक्षण की महान इमारत है जहाँ पूरी दुनिया के संत वास्तविक शिक्षा की खातिर आते है।कबीर के माँ-बाप बेहद गरीब और अनपढ़ थे लेकिन उन्होंने कबीर को पूरे दिल से स्वीकार किया और खुद के व्यवसाय के बारे में शिक्षित किया। उन्होंने एक सामान्य गृहस्वामी और एक सूफी के संतुलित जीवन को जीया।
ऐसा माना जाता है कि अपने बचपन में उन्होंने अपनी सारी धार्मिक शिक्षा रामानंद नामक गुरु से ली। और एक दिन वो गुरु रामानंद के अच्छे शिष्य के रुप में जाने गये। उनके महान कार्यों को पढ़ने के लिये अध्येता और विद्यार्थी कबीर दास के घर में ठहरते है। ये माना जाता है कि उन्होंने अपनी धार्मिक शिक्षा गुरु रामानंद से ली। शुरुआत में रामानंद कबीर दास को अपने शिष्य के रुप में लेने को तैयार नहीं थे। लेकिन बाद की एक घटना ने रामानंद को कबीर को शिष्य बनाने में अहम भूमिका निभायी। एक बार की बात है, संत कबीर तालाब की सीढ़ियों पर लेटे हुए थे और रामा-रामा का मंत्र पढ़ रहे थे, रामानंद भोर में नहाने जा रहे थे और कबीर उनके पैरों के नीचे आ गये इससे रामानंद को अपनी गलती का एहसास हुआ और वे कबीर को अपने शिष्य के रुप में स्वीकार करने को मजबूर हो गये। ऐसा माना जाता है कि कबीर जी का परिवार आज भी वाराणसी के कबीर चौरा में निवास करता है।
हिन्दू धर्म, इस्लाम के बिना छवि वाले भगवान के साथ व्यक्तिगत भक्तिभाव के साथ ही तंत्रवाद जैसे उस समय के प्रचलित धार्मिक स्वाभाव के द्वारा कबीर दास के लिये पूर्वाग्रह था, कबीर दास पहले भारतीय संत थे जिन्होंने हिन्दू और इस्लाम धर्म को सार्वभौमिक रास्ता दिखा कर समन्वित किया जिसे दोनों धर्म के द्वारा माना गया। कबीर के अनुसार हर जीवन का दो धार्मिक सिद्धातों से रिश्ता होता है (जीवात्मा और परमात्मा)। मोक्ष के बारे में उनका विचार था कि ये इन दो दैवीय सिद्धांतों को एक करने की प्रक्रिया है।
उनकी महान रचना बीजक में कविताओं की भरमार है जो कबीर के धार्मिकता पर सामान्य विचार को स्पष्ट करता है। कबीर की हिन्दी उनके दर्शन की तरह ही सरल और प्राकृत थी। वो ईश्वर में एकात्मकता का अनुसरण करते थे। वो हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे और भक्ति तथा सूफ़ी विचारों में पूरा भरोसा दिखाते थे।
कबीर के द्वारा रचित सभी कविताएँ और गीत कई सारी भाषाओं में मौजूद है। कबीर और उनके अनुयायियों को उनके काव्यगत धार्मिक भजनों के अनुसार नाम दिया जाता है जैसे बनिस और बोली। विविध रुप में उनके कविताओं को साखी, श्लोक (शब्द) और दोहे (रमेनी) कहा जाता है। साखी का अर्थ है परम सत्य को दोहराते और याद करते रहना। इन अभिव्यक्तियों का स्मरण, कार्य करना और विचारमग्न के द्वारा आध्यात्मिक जागृति का एक रास्ता उनके अनुयायियों और कबीर के लिये बना हुआ है।
सिद्धपीठ कबीरचौरा मठ मुलगड़ी और उसकी परंपरा
कबीरचौरा मठ मुलगड़ी संत-शिरोमणि कबीर दास का घर, ऐतिहासिक कार्यस्थल और ध्यान लगाने की जगह है। वे अपने प्रकार के एकमात्र संत है जो “सब संतन सरताज” के रुप में जाने जाते है। ऐसा माना जाता है कि जिस तरह संत कबीर के बिना सभी संतों का कोई मूल्य नहीं उसी तरह कबीरचौरा मठ मुलगड़ी के बिना मानवता का इतिहास मूल्यहीन है। कबीरचौरा मठ मुलगड़ी का अपना समृद्ध परंपरा और प्रभावशाली इतिहास है। ये कबीर के साथ ही सभी संतों के लिये साहसिक विद्यापीठ है । मध्यकालीन भारत के भारतीय संतों ने इसी जगह से अपनी धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। मानव परंपरा के इतिहास में ये साबित हुआ है कि गहरे चिंतन के लिये हिमालय पर जाना जरुरी नहीं है बल्कि इसे समाज में रहते हुए भी किया जा सकता है। कबीर दास खुद इस बात के आदर्श संकेतक थे। वो भक्ति के सच्चे प्रचारक थे साथ ही उन्होंने आमजन की तरह साधारण जीवन लोगों के साथ जीया। पत्थर को पूजने के बजाय उन्होंने लोगों को स्वतंत्र भक्ति का रास्ता दिखाया। इतिहास गवाह है कि यहाँ की परंपरा ने सभी संतों को सम्मान और पहचान दी।
कबीर और दूसरे संतों के द्वारा उनकी परंपरा के इस्तेमाल किये गये वस्तुओं को आज भी कबीर मठ में सुरक्षित तरीके से रखा गया है। सिलाई मशीन, खड़ाऊ, रुद्राक्ष की माला (रामानंद से मिली हुयी), जंग रहित त्रिशूल और इस्तेमाल की गयी दूसरी सभी चीजें इस समय भी कबीर मठ में उपलब्ध है। 
ऐतिहासिक कुआँ
 

कबीर मठ में एक ऐतिहासिक कुआँ है, जिसके पानी को उनकी साधना के अमृत रस के साथ मिला हुआ माना जाता है। दक्षिण भारत से महान पंडित सर्वानंद के द्वारा पहली बार ये अनुमान लगाया गया था। वो यहाँ कबीर से बहस करने आये थे और प्यासे हो गये। उन्होंने पानी पिया और कमाली से कबीर का पता पूछा। कमाली नें कबीर के दोहे के रुप में उनका पता बताया।
“कबीर का शिखर पर, सिलहिली गाल
पाँव ना टिकाई पीपील का, पंडित लड़े बाल”
वे कबीर से बहस करने गये थे लेकिन उन्होंने बहस करना स्वीकार नहीं किया और सर्वानंद को लिखित देकर अपनी हार स्वीकार की। सर्वानंद वापस अपने घर आये और हार की उस स्वीकारोक्ति को अपने माँ को दिखाया और अचानक उन्होंने देखा कि उनका लिखा हुआ उल्टा हो चुका था। वो इस सच्चाई से बेहद प्रभावित हुए और वापस से काशी के कबीर मठ आये बाद में कबीर दास के अनुयायी बने। वे कबीर से इस स्तर तक प्रभावित थे कि अपने पूरे जीवन भर उन्होंने कभी कोई किताब नहीं छुयी। बाद में, सर्वानंद आचार्य सुरतीगोपाल साहब की तरह प्रसिद्ध हुए। कबीर के बाद वे कबीर मठ के प्रमुख बने।
कैसे पहुँचे:
सिद्धपीठ कबीरचौरा मठ मुलगड़ी वाराणसी के रुप में जाना जाने वाला भारत के प्रसिद्ध सांस्कृतिक शहर में स्थित है। कोई भी यहाँ हवाईमार्ग, रेलमार्ग या सड़कमार्ग से पहुँच सकता है। ये वाराणसी हवाई अड्डे से 18 किमी और वाराणसी रेलवे स्टेशन से 3 किमी की दूरी पर स्थित है।
काशी नरेश यहाँ क्षमा माँगने आये थे:
एक बार की बात है, काशी नरेश राजा वीरदेव सिंह जुदेव अपना राज्य छोड़ने के दौरान माफी माँगने के लिये अपनी पत्नी के साथ कबीर मठ आये थे। कहानी ऐसे है कि: एक बार काशी नरेश ने कबीर दास की ढ़ेरों प्रशंसा सुनकर सभी संतों को अपने राज्य में आमंत्रित किया, कबीर दास राजा के यहाँ अपनी एक छोटी सी पानी के बोतल के साथ पहुँचे। उन्होंने उस छोटे बोतल का सारा पानी उनके पैरों पर डाल दिया, कम मात्रा का पानी देर तक जमीन पर बहना शुरु हो गया। पूरा राज्य पानी से भर उठा, इसलिये कबीर से इसके बारे में पूछा गया उन्होंने कहा कि एक भक्त जो जगन्नाथपुरी में खाना बना रहा था उसकी झोपड़ी में आग लग गयी।
जो पानी मैंने गिराया वो उसके झोपड़ी को आग से बचाने के लिये था। आग बहुत भयानक थी इसलिये छोटे बोतल से और पानी की जरुरत हो गयी थी। लेकिन राजा और उनके अनुयायी इस बात को स्वीकार नहीं किया और वे सच्चा गवाह चाहते थे। उनका विचार था कि आग लगी उड़ीसा में और पानी डाला जा रहा है काशी में। राजा ने अपने एक अनुगामी को इसकी छानबीन के लिये भेजा। अनुयायी आया और बताया कि कबीर ने जो कहा था वो बिल्कुल सत्य था। इस बात के लिये राजा बहुत शर्मिंदा हुए और तय किया कि वो माफी माँगने के लिये अपनी पत्नी के साथ कबीर मठ जाएँगे। अगर वो माफी नहीं देते है तो वो वहाँ आत्महत्या कर लेंगे। उन्हें वहाँ माफी मिली और उस समय से राजा कबीर मठ से हमेशा के लिये जुड़ गये।
समाधि मंदिर:
समाधि मंदिर वहाँ बना है जहाँ कबीर दास अक्सर अपनी साधना किया करते थे। सभी संतों के लिये यहाँ समाधि से साधना तक की यात्रा पूरी हो चुकी है। उस दिन से, ये वो जगह है जहाँ संत अत्यधिक ऊर्जा के बहाव को महसूस करते है। ये एक विश्व प्रसिद्ध शांति और ऊर्जा की जगह है। ऐसा माना जाता है कि उनकी मृत्यु के बाद लोग उनके शरीर के अंतिम संस्कार को लेकर झगड़ने लगे। लेकिन जब समाधि कमरे के दरवाजे को खोला गया, तो वहाँ केवल दो फूल थे जो अंतिम संस्कार के लिये उनके हिन्दू और मुस्लिम अनुयायियों के बीच बाँट दिया गया। मिर्ज़ापुर के मोटे पत्थर से समाधि मंदिर का निर्माण किया गया है।
कबीर चबूतरा पर बीजक मंदिर:
ये जगह कबीर दास का कार्यस्थल होने के साथ साधना स्थल भी था। ये वो जगह है जहाँ कबीर ने अपने अनुयायियों को भक्ति, ज्ञान, कर्म और मानवता की शिक्षा दी। इस जगह का नाम रखा गया कबीर चबूतरा। बीजक कबीर दास की महान रचना थी इसी वजह से कबीर चबूतरा का नाम बीजक मंदिर रखा गया।
कबीर तेरी झोपड़ी, गलकट्टो के पास।
जो करेगा वो भरेगा, तुम क्यों होत उदास।
उत्तर भारत में अपने भक्ति आंदोलन के लिये बड़े पैमाने पर मध्यकालीन भारत के एक भक्ति और सूफी संत थे कबीर दास। इनका जीवन चक्र काशी (इसको बनारस या वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है) के केन्द्र में था। वो माता-पिता की वजह से बुनकर व्यवसाय से जुड़े थे और जाति से जुलाहा थे। इनके भक्ति आंदोलन के लिये दिये गये विशाल योगदान को भारत में नामदेव, रविदास, और फरीद के साथ पथप्रदर्शक के रुप में माना जाता है। वे मिश्रित आध्यात्मिक स्वाभाव के संत थे (नाथ परंपरा, सूफिज्म, भक्ति) जो खुद से उन्हंट विशिष्ट बनाता है। उन्होंने कहा है कि कठिनाई की डगर सच्चा जीवन और प्यार है।
15वीं शताब्दी में, वाराणसी में लोगों के जीवन के सभी क्षेत्रों में शिक्षण केन्द्रों के साथ ही ब्राह्मण धर्मनिष्ठता के द्वारा मजबूती से संघटित हुआ था। जैसा कि वे एक निम्न जाति जुलाहा से संबंध रखते थे कबीर दास अपने विचारों को प्रचारित करने में कड़ी मेहनत करते थे। वे कभी भी लोगों में भेदभाव नहीं करते थे चाहे वो वैश्या, निम्न या उच्च जाति से संबंध रखता हो। वे खुद के अनुयायियों के साथ सभी को एक साथ उपदेश दिया करते थे। ब्राह्मणों द्वारा उनका अपने उपदेशों के लिये उपहास उड़ाया जाता था लेकिन वे कभी उनकी बुराई नहीं करते थे इसी वजह से कबीर सामान्य जन द्वारा बहुत पसंद किये जाते थे। वे अपने दोहो के द्वारा जीवन की असली सच्चाई की ओर आम-जन के दिमाग को ले जाने की शुरुआत कर चुके थे।

   
वे हमेशा मोक्ष के साधन के रुप में कर्मकाण्ड और सन्यासी तरीकों का विरोध करते थे। उन्होंने कहा कि अपनों के लाल रंग से ज्यादा महत्व है अच्छाई के लाल रंग का। उनके अनुसार, अच्छाई का एक दिल पूरी दुनिया की समृद्धि को समाहित करता है। एक व्यक्ति दया के साथ मजबूत होता है, क्षमा उसका वास्तविक अस्तित्व है तथा सही के साथ कोई व्यक्ति कभी न समाप्त होने वाले जीवन को प्राप्त करता है। कबीर ने कहा कि भगवान आपके दिल में है और हमेशा साथ रहेगा। तो उनकी भीतरी पूजा कीजिये। उन्होंने अपने एक उदाहरण से लोगों का दिमाग परिवर्तित कर दिया कि अगर यात्रा करने वाला चलने के काबिल नहीं है, तो यात्री के लिये रास्ता क्या करेगा।
उन्होंने लोगों की आँखों को खोला और उन्हें मानवता, नैतिकता और धार्मिकता का वास्तविक पाठ पढ़ाया। वे अहिंसा के अनुयायी और प्रचारक थे। उन्होंने अपने समय के लोगों के दिमाग को अपने क्रांतिकारी भाषणों से बदल दिया। कबीर के पैदा होने और वास्तविक परिवार का कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है। कुछ कहते है कि वो मुस्लिम परिवार में जन्मे थे तो कोई कहता है कि वो उच्च वर्ग के ब्राह्मण परिवार से थे। उनके निधन के बाद हिन्दू और मुस्लिमों में उनके अंतिम संस्कार को लेकर विवाद हो गया था। उनका जीवन इतिहास प्रसिद्ध है और अभी तक लोगों को सच्ची इंसानियत का पाठ पढ़ाता है।
कबीर दास का धर्म
कबीर दास के अनुसार, जीवन जीने का तरीका ही असली धर्म है जिसे लोग जीते है ना कि वे जो लोग खुद बनाते है। उनके अनुसार कर्म ही पूजा है और जिम्मेदारी ही धर्म है। वे कहते थे कि अपना जीवन जीयो, जिम्मेदारी निभाओ और अपने जीवन को शाश्वत बनाने के लिये कड़ी मेहनत करो। कभी भी जीवन में सन्यासियों की तरह अपनी जिम्मेदारियों से दूर मत जाओ। उन्होंने पारिवारिक जीवन को सराहा है और महत्व दिया है जो कि जीवन का असली अर्थ है। वेदों में यह भी उल्लिखित है कि घर छोड़ कर जीवन को जीना असली धर्म नहीं है। गृहस्थ के रुप में जीना भी एक महान और वास्तविक सन्यास है। जैसे, निर्गुण साधु जो एक पारिवारिक जीवन जीते है, अपनी रोजी-रोटी के लिये कड़ी मेहनत करते है और साथ ही भगवान का भजन भी करते है।
कबीर ने लोगों को विशुद्ध तथ्य दिया कि इंसानियत का क्या धर्म है जो कि किसी को अपनाना चाहिये। उनके इस तरह के उपदेशों ने लोगों को उनके जीवन के रहस्य को समझने में मदद किया।
कबीर दास: एक हिन्दू या मुस्लिम
ऐसा माना जाता है कि कबीर दास के मृत्यु के बाद हिन्दू और मुस्लिमों ने उनके शरीर को पाने के लिये अपना-अपना दावा पेश किया। दोनों धर्मों के लोग अपने रीति-रिवाज़ और परंपरा के अनुसार कबीर का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। हिन्दुओं ने कहा कि वो हिन्दू थे इसलिये वे उनके शरीर को जलाना चाहते है जबकि मुस्लिमों ने कहा कि कबीर मुस्लिम थे इसलिये वो उनको दफनाना चाहते है।
लेकिन जब उन लोगों ने कबीर के शरीर पर से चादर हटायी तो उन्होंने पाया कि कुछ फूल वहाँ पर पड़े है। उन्होंने फूलों को आपस में बाँट लिया और अपने-अपने रीति-रिवाजों से महान कबीर का अंतिम संस्कार संपन्न किया। ऐसा भी माना जाता है कि जब दोनों समुदाय आपस में लड़ रहे थे तो कबीर दास की आत्मा आयी और कहा कि “ना ही मैं हिन्दू हूँ और ना ही मैं मुसलमान हूँ। यहाँ कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है। मैं दोनों हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ, और सब हूँ। मैं दोनों मे भगवान देखता हूँ। उनके लिये हिन्दू और मुसलमान एक है जो इसके गलत अर्थ से मुक्त है। परदे को हटाओ और जादू देखो”।

 
कबीर दास का मंदिर काशी के कबीर चौराहा पर बना है जो भारत के साथ ही विदेशी सैलानियों के लिये भी एक बड़े तीर्थस्थान के रुप में प्रसिद्ध हो गया है। मुस्लिमों द्वारा उनके कब्र पर एक मस्जिद बनायी गयी है जो मुस्लिमों के तीर्थस्थान के रुप में बन चुकी है।
कबीर दास के भगवान
कबीर के गुरु रामानंद ने उन्हें गुरु मंत्र के रुप में भगवान ‘रामा’ नाम दिया था जिसका उन्होंने अपने तरीके से अर्थ निकाला था। वे अपने गुरु की तरह सगुण भक्ति के बजाय निर्गुण भक्ति को समर्पित थे। उनके रामा संपूर्ण शुद्ध सच्चदानंद थे, दशरथ के पुत्र या अयोध्या के राजा नहीं जैसा कि उन्होंने कहा “दशरथ के घर ना जन्में, ई चल माया किनहा”। वो इस्लामिक परंपरा से ज्यादा बुद्धा और सिद्धा से बेहद प्रभावित थे। उनके अनुसार “निर्गुण नाम जपो रहे भैया, अविगति की गति लाखी ना जैया”।
उन्होंने कभी भी अल्लाह या राम में फर्क नहीं किया, कबीर हमेशा लोगों को उपदेश देते कि ईश्वर एक है बस नाम अलग है। वे कहते है कि बिना किसी निम्न और उच्च जाति या वर्ग के लोगों के बीच में प्यार और भाईचारे का धर्म होना चाहिये। ऐसे भगवान के पास अपने आपको समर्पित और सौंप दो जिसका कोई धर्म नहीं हो। वो हमेशा जीवन में कर्म पर भरोसा करते थे।
कबीर दास की मृत्यु
15 शताब्दी के सूफी कवि कबीर दास के बारे में ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपने मरने की जगह खुद से चुनी थी, मगहर, जो लखनउ शहर से 240 किमी दूरी पर स्थित है। लोगों के दिमाग से मिथक को हटाने के लिये उन्होंने ये जगह चुनी थी उन दिनों, ऐसा माना जाता था कि जिसकी भी मृत्यु मगहर में होगी वो अगले जन्म में बंदर बनेगा और साथ ही उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। कबीर दास की मृत्यु काशी के बजाय मगहर में केवल इस वजह से हुयी थी क्योंकि वो वहाँ जाकर लोगों के अंधविश्वास और मिथक को तोड़ना चाहते थे। 1575 विक्रम संवत में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार माघ शुक्ल एकादशी के वर्ष 1518 में जनवरी के महीने में मगहर में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। ऐसा भी माना जाता है कि जो कोई भी काशी में मरता है वो सीधे स्वर्ग में जाता है इसी वजह से मोक्ष की प्राप्ति के लिये हिन्दू लोग अपने अंतिम समय में काशी जाते है। एक मिथक को मिटाने के लिये कबीर दास की मृत्यु काशी के बाहर हुयी। इससे जुड़ा उनका एक खास कथन है कि “जो कबीरा काशी मुएतो रामे कौन निहोरा” अर्थात अगर स्वर्ग का रास्ता इतना आसान होता तो पूजा करने की जरुरत क्या है।
कबीर दास का शिक्षण व्यापक है और सभी के लिये एक समान है क्योंकि वो हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और दूसरे किसी धर्मों में भेदभाव नहीं करते थे। मगहर में कबीर दास की समाधि और मज़ार दोनों है। कबीर की मृत्यु के बाद हिन्दू और मुस्लिम धर्म के लोग उनके अंतिम संस्कार के लिये आपस में भिड़ गये थे। लेकिन उनके मृत शरीर से जब चादर हटायी गयी तो वहाँ पर कुछ फूल पड़े थे जिसे दोनों समुदायों के लोगों ने आपस में बाँट लिया और फिर अपने अपने धर्म के अनुसार कबीर जी का अंतिम संस्कार किया।

 
समाधि से कुछ मीटर दूरी पर एक गुफा है जो मृत्यु से पहले उनके ध्यान लगाने की जगह को इंगित करती है। उनके नाम से एक ट्रस्ट चल रहा है जिसका नाम है कबीर शोध संस्थान जो कबीर दास के कार्यों पर शोध को प्रचारित करने के लिये शोध संस्थान के रुप में है। वहाँ पर शिक्षण संस्थान भी है जो कबीर दास के शिक्षण को भी समाहित किया हुआ है।
कबीर दास: एक सूफी संत
भारत में मुख्य आध्यात्मिक कवियों में से एक कबीर दास महान सूफी संत थे जो लोगों के जीवन को प्रचारित करने के लिये अपने दार्शनिक विचार दिये। उनका दर्शन कि ईश्वर एक है और कर्म ही असली धर्म है ने लोगों के दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी। उनका भगवान की ओर प्यार और भक्ति ने हिन्दू भक्ति और मुस्लिम सूफी के विचार को पूरा किया।
ऐसा माना जाता है कि उनका संबंध हिन्दू ब्राह्मण परिवार से था लेकिन वे बिन बच्चों के मुस्लिम परिवार नीरु और नीमा द्वारा अपनाये गये थे । उन्हें उनके माता-पिता द्वारा काशी के लहरतारा में एक तालाब में बड़े से कमल के पत्ते पर पाया गया था। उस समय दकियानूसी हिन्दू और मुस्लिम लोगों के बीच में बहुत सारी असहमति थी जो कि अपने दोहों के द्वारा उन मुद्दों को सुलझाना कबीर दास का मुख्य केन्द्र बिन्दु था
पेशेवर ढ़ग से वो कभी कक्षा में नहीं बैठे लेकिन वो बहुत ज्ञानी और अध्यात्मिक व्यक्ति थे। कबीर ने अपने दोहे औपचारिक भाषा में लिखे जो उस समय अच्छी तरह से बोली जाती थी जिसमें ब्रज, अवधि और भोजपुरी समाहित थी। उन्होंने बहुत सारे दोहे तथा सामाजिक बंधंनों पर आधारित कहानियों की किताबें लिखी।


कबीर दास की रचनाएँ
कबीर दास जी का जीवन जैसा सरल और सीधा था वैसे ही भाव उनकी कविता , दोहों में झलकता है। कबीर के द्वारा लिखी गयी पुस्तकें सामान्यत: दोहा और गीतों का समूह होता है। जिसमें से कुछ महत्पूर्ण और प्रसिद्ध रचनाएँ है जैसे रक्त, कबीर बीजक, सुखनिधन, मंगल, वसंत, शब्द, साखी, और होली अगम।
कबीर दास की लेखन शैली : -
जैसा उनका भेष वैसे ही उनकी रचनाएँ सरल और साधारण है। कबीर की लेखन शैली और भाषा बहुत सुंदर और साधारण होती है। उन्होंने अपना दोहा बेहद निडरतापूर्वक और सहज रुप से लिखा है जिसका कि अपना अर्थ और महत्व है बराबर है । कबीर दास के मन में जो बिचार आये उन्हें उन्होंने दोहे में ढाल दिया। कबीर ने दिल की गहराईयों से अपनी रचनाओं को लिखा है। उन्होंने पूरी दुनिया को अपने सरल दोहों में समेटा है। उनका कहा गया दोहा किसी भी तुलना से ऊपर और प्रेरणादायक है।
 
कबीर दास ने कई और महत्वपूर्ण कृतियों की रचनाएं की हैं, क्युकि उनका जीवन मानवता को समर्पित रहा है। कबीर दास जी ने अपने अनुभवो कष्टों को शब्दों में दिखाया है जिस से अभी भी समय है मानवता को समझने के लिए  जिसमें उन्होंने अपने साहित्यिक ज्ञान के माध्यम से लोगों का सही मार्गदर्शन कर उन्हें अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है।

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